— 6 महीने में 600 मीटर चला न्यायालय का आदेशकाठमांडू। नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय के एक कारण बताओ नोटिस से देश की राजनीति में भूचाल आ गया है। न्यायालय ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए जो आदेश दिया उससे संसद के निचले सदन (प्रतिनिधि सभा) के 110 समानुपातिक सांसदों की सदस्यता पर तलवार लटक गई है। न्यायालय ने सांसदों को एक सप्ताह के भीतर लिखित जवाब देने का आदेश देते हुए पूछा है कि क्यों न आपकी सदस्यता रद्द कर दी जाए।नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय के संवैधानिक पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता बालकृष्ण न्यौपाने के द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए यह आदेश दिया। न्यौपाने ने अपनी याचिका में कहा है कि नेपाल की प्रतिनिधि सभा में संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक समानुपातिक आधार पर राजनीतिक दलों की सिफारिश पर 110 लोगों को सांसद बनाया गया है। लेकिन इन सांसदों का चयन संवैधानिक प्रावधानों ताक पर रखकर किया गया है। इसलिए इन सांसदों की सदस्यता रद्द कर दी जाए।याचिका में कहा गया है कि नेपाल के संविधान में प्रतिनिधि सभा में 275 सांसदों का प्रावधान है। इनमें से 165 सांसद प्रत्यक्ष निर्वाचन (चुनाव) के तहत चुनकर आते हैं। जबकि 110 सांसदों का चयन राजनीतिक दलों को मिले समानुपातिक मत प्रतिशत के आधार पर किया जाता है। समानुपातिक सांसद बनाने का अधिकार उन्हीं राजनीतिक दलों को दिया जाता है जिनको कुल मत का न्यूनतम तीन प्रतिशत वोट प्राप्त हुए हों। नेपाल के संविधान की धारा में 42(1) के मुताबिक आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछडे आदिवासी, जनजाति, दलित, मधेशी, थारू, अल्पसंख्यक, खसआर्य एवं मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व कराने के लिए समानुपातिक सांसद बनाने का प्रावधान रखा गया है। सर्वोच्च अदालत में दायर याचिका में सभी राजनीतिक दलों पर यह आरोप है कि समानुपातिक सांसदों का चयन जाति के आधार पर तो कर दिया गया है लेकिन इनमें से कोई भी आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा व्यक्ति नहीं है। समानुपातिक आधार पर चयनित सांसद आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक रूप से सम्पन्न हैं जोकि संविधान के मूल भावना के खिलाफ है।इसी को आधार बनाकर सर्वोच्च में दायर की गई याचिका पर सुनवाई करते हुए प्रधान न्यायाधीश हरिकृष्ण कार्की, न्यायाधीश विश्वम्भर प्रसाद श्रेष्ठ, न्यायाधीश ईश्वर प्रसाद खतिवडा, न्यायाधीश डा. आनन्द मोहन भट्टराई और न्यायाधीश अनिल कुमार सिन्हा की संवैधानिक पीठ ने सभी 110 सांसदों को लिखित स्पष्टीकरण देने का आदेश दिया है। पत्र प्राप्त होने के सात दिनों के भीतर न्यायालय के सम्मुख अपना लिखित पक्ष रखना होगा। सांसदों के अलावा नेपाल सरकार, प्रधानमंत्री कार्यालय और निर्वाचन आयोग को भी इस मामले में कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है।यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने इस साल 18 जनवरी को ही यह आदेश दिया था, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश संसद सचिवालय से होकर सांसदों तक पहुंचते पहुंचते 6 महीने से अधिक का समय लग गया है। अधिकांश सांसदों को 31 जुलाई को और कई सांसदों को मंगलवार 1 अगस्त की देर शाम न्यायालय का यह आदेश मिल पाया है।यह जनहित याचिका दायर करने वाले बालकृष्ण न्यौपाने का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय और संसद सचिवालय की दूरी महज 600 मीटर की भी नहीं है लेकिन न्यायालय का यह आदेश पहुंचते पहुंचते 6 महीने का समय लग गया है जो कि अपने आपमें हास्यास्पद है। नोटिस मिलने के बाद देश में राजनीतिक हडकंप मच गया है। सांसद व राजनीतिक दल इस मसले पर कानूनी सलाह लेने में व्यस्त हैं।